“भूल चूक माफ फिल्म रिव्यू: राजकुमार राव की टाइम लूप स्टोरी में क्या हैं खास?”

Bhhul Chuk Maaf Film Review

राजकुमार राव और वामिका गब्बी की नई फिल्म ‘भूल चूक माफ’ का रिव्यू। टाइम लूप, शादी, बेरोजगारी और मैसेजिंग से भरी इस फिल्म में क्या है खास और क्या है कमी? राजकुमार राव और वामिका की नई फिल्म ‘भूल चूक माफ’ का गहराई से रिव्यू। टाइम लूप, मैसेजिंग और ड्रामा में उलझी ये फिल्म हिट है या फ्लॉप?

फिल्म के बारे में परिचय

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राजकुमार राव और वामिका गब्बी की नई फिल्म “भूल चूक माफ़” रिलीज़ हो चुकी है। इस फिल्म की रिलीज़ से पहले काफी विवाद हुए। पहले इसे थिएटर्स में रिलीज़ करने की योजना थी, लेकिन मेकर्स ने भारत-पाकिस्तान के बीच तनाव का हवाला देते हुए इसे ओटीटी पर लाने का फैसला किया। इस फैसले को लेकर PVR और प्रोडक्शन कंपनी Maddock Films के बीच मतभेद हो गए। अंततः दोनों पक्षों ने आपसी समझौते से इस फिल्म को सिनेमाघरों में ही रिलीज़ करने का निर्णय लिया।

भूल चूक माफ की कहानी क्या हैं?

जब “भूल चूक माफ़” देखी जाती है, तो यह साफ़ होता है कि यही “समझौता” फिल्म की कहानी में भी कहीं न कहीं झलकता है। फिल्म के प्रमोशनल मटेरियल में बताया गया था कि यह एक टाइम लूप पर आधारित कहानी है — एक ऐसा कांसेप्ट जिसमें इंसान एक ही समय में फंस जाता है, और समय उसके लिए बार-बार दोहराया जाता है। लेकिन जब आप फिल्म देखते हैं, तो पता चलता है कि टाइम लूप तो महज़ एक झांकी थी, असली ड्रामा कुछ और है।

कहानी कहां से शुरू होती है?

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कहानी बनारस में रहने वाले एक जोड़े की है  रंजन तिवारी और तितली मिश्रा। दोनों शादी करना चाहते हैं, लेकिन तितली के पिता की एक शर्त है: लड़के की सरकारी नौकरी होनी चाहिए। रंजन किसी तरह मन्नतें मांगकर, जुगाड़ करके नौकरी का इंतज़ाम करता है। घर में खुशी का माहौल होता है, शादी की तैयारियां शुरू हो जाती हैं। हल्दी लगने के बाद रंजन सो जाता है, लेकिन अगली सुबह जब उठता है, तो फिर से हल्दी की वही तैयारियां हो रही होती हैं। ऐसा कई दिनों तक होता है। क्यों होता है? यह जानने के लिए आपको फिल्म देखनी पड़ेगी।

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भूल चूक माफ की समस्या क्या हैं?

भूल चूक माफ़” की सबसे बड़ी समस्या यह है कि यह एक और ‘टीम लेट’ फिल्म बन जाती है। वही यूपी का छोटा शहर, वही झगड़ालू परिवार, वही पुराने मसले — और इस बार तो टाइम लूप का कांसेप्ट भी फिल्म को नहीं बचा पाया।

भूल चूक माफ के डायलॉग

फिल्म में कुछ एक डायलॉग को छोड़कर बाकी कोई पंचलाइन असर नहीं छोड़ती। एक सीधी-सादी कहानी को इतनी उलझन भरी तरह से पेश किया गया है कि दर्शकों को लगे कि वो कुछ नया देख रहे हैं, जबकि असल में सब कुछ बासी सा लगता है।

फिल्म अपने पॉइंट तक पहुँचने में इतना वक्त लेती है कि बोरियत महसूस होने लगती है।

फिल्म का मेसेज और मैसेजिंग बोझ

हाल की हिंदी कॉमेडी फिल्मों की एक और समस्या यह रही है कि वो केवल कॉमेडी नहीं रहना चाहतीं। वो दर्शकों को कोई गहरा संदेश भी देना चाहती हैं। “स्त्री” जैसी कुछ फिल्में थीं, जिनका संदेश उनकी कहानी में ही छुपा था, उन्हें ज़बरदस्ती समझाने की ज़रूरत नहीं पड़ी। लेकिन “भूल चूक माफ़” जैसी फिल्में जबरन दर्शकों को ज्ञान देना चाहती हैं, और यही कोशिश फिल्म की मूल कहानी को नुकसान पहुंचाती है।

जबरन ज्ञान और चौथी दीवार तोड़ने की रणनीति

अंत में, हीरो चौथी दीवार तोड़कर सीधे दर्शकों से बात करता है और अपना मैसेज देता है। अगर सीधा जनता से ही बात करनी थी, तो फिर फिल्म बनाने की क्या जरूरत थी?

बेरोजगारी,धर्म और सोशल मुद्दे: सब कुछ एक साथ क्यों?

“भूल चूक माफ़” के पास एक शानदार कांसेप्ट था — टाइम लूप। हिंदी सिनेमा में “लूप लपेटा” जैसी कुछ ही फिल्में हैं जिन्होंने इस कांसेप्ट को एक्सप्लोर किया है। लेकिन यहां तो फिल्म बहुत सारी चीजें एक साथ करना चाहती है — बेरोजगारी की बात करनी है, धार्मिक सौहार्द पर टिप्‍पणी करनी है, मगर किसी भी मुद्दे को गंभीरता से नहीं लिया गया है। अंत में सब कुछ भगवान भरोसे छोड़ दिया जाता है। और यह कोई रूपक नहीं है — फिल्म सच में भगवान शिव पर खत्म होती है।यह कितना अजीब लगता है कि एक फिल्म जो साइंस के कांसेप्ट से शुरू होती है, वह भगवान पर जाकर खत्म हो जाती है। बड़ी-बड़ी बातें करने के चक्कर में मेकर्स बेसिक बातें ही भूल जाते हैं।

भूल चूक माफ की तुलना दूसरी फिल्‍म से करने पर

उदाहरण के तौर पर — मसलन फिल्म में एक किरदार है जिसकी पत्नी अचार का बिज़नेस करती है। उस आदमी को यह कहकर चिढ़ाया जाता है कि वह अपनी पत्नी के पैसों पर पल रहा है। वहीं दूसरी तरफ, बच्चे पैदा करना दुनिया का सबसे आसान काम बता दिया जाता है। यह वही ‘Women Written by Men’ वाली समस्या है।यह सब तो फिर भी सहन किया जा सकता है, लेकिन फिर आता है फिल्म का क्लाइमैक्स।

फिल्‍म का क्‍लाइमैक्स ड्रैगन फिल्‍म के जैसे हैं।

कुछ समय पहले एक तमिल फिल्म आई थी — “ड्रैगन”, जिसमें एक लड़का फर्जी डिग्री दिखाकर बड़ी कंपनी में नौकरी पाता है। “भूल चूक माफ़” और “ड्रैगन” के आइडिया मिलते-जुलते हो सकते हैं, लेकिन क्लाइमैक्स लगभग एक जैसा है। फर्क सिर्फ इतना है कि “ड्रैगन” में यह मोड़ केवल अंत में आता है और असर छोड़कर निकल जाता है। बस फर्क यह है कि ड्रैगन के मेकर्स ने उस चीज के चक्‍कर में पूरी फिल्‍म की ऐसी तैसी नहीं की थी लास्‍ट में वो चीज आती है और अपना इंपैक्‍ट छोड़कर चली जाती हैं यहां तो बाकायदा एक किरदार आता है और स्पीच देकर पूरी कहानी समझाता है कि यह पूरा माजरा क्‍या हैं

एक्टिंग और परफॉर्मेंस कैसी रही?

राजकुमार राव का रेपिटेटिव मगर प्रभावी अभिनय

राजकुमार राव ने रंजन तिवारी का किरदार निभाया है। ऐसे रोल वो कई बार कर चुके हैं, इसलिए उनके हाव-भाव और बॉडी लैंग्वेज में एक आदत सी झलकती है। फिर भी, उनकी एक्टिंग में फ्रेशनेस लाने की कोशिश दिखती है। कई सीन में उनका फ्रस्ट्रेशन मज़ेदार लगता है, लेकिन यह सब दर्शकों के लिए अब दोहरावपूर्ण हो गया है।

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वामिका गब्‍बी का बबली किरदार: हद से ज्‍यादा?

वामिका गब्बी ने तितली का किरदार कुछ ज़्यादा ही बबली बना दिया है। वो कभी पप्पी फेस बनाकर पापा को ब्लैकमेल करती हैं, तो कभी अपने करियर को छोड़कर रंजन की नौकरी लगवाने में जुटी रहती हैं — ताकि उससे शादी कर सकें। आज की “Strong Independent Woman” का ऐसा चित्रण बेहद सतही लगता है।

सपोर्टिंग कास्‍ट की बर्बादी: स्‍कोप

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फिल्म में ज़ाकिर हुसैन, रघुवीर यादव, सीमा पाहवा, संजय मिश्रा और इश्तियाक़ खान जैसे शानदार कलाकार हैं — मगर किसी को भी परफॉर्म करने का मौका नहीं दिया गया है।

राइटिंग में क्‍या कमजोरियां रही?

कुल मिलाकर “भूल चूक माफ़” के पास कहने को बहुत कुछ था, मगर राइटिंग इतनी बिखरी हुई है कि फिल्म सिर्फ ज़रा-सा ही असर छोड़ पाती है।

अगर आपको रिव्यू देखना हैं तो You Tube channel link

बाकी, यह हमारी व्यक्तिगत राय है।

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